JNN: भारतीय समाज में पति-पत्नी का रिश्ता युगों से ‘सात जन्मों के साथ’ की तरह देखा जाता रहा है। यह रिश्ता न केवल दो दिलों का मेल है, बल्कि दो जीवनों की साझेदारी भी है। लेकिन आजकल इस पवित्र संबंध पर जैसे किसी अनदेखी आँच की तपिश पड़ रही है। हाल के वर्षों में, विशेषकर शहरी भारत में, पति-पत्नी के रिश्ते में दरारें पहले से कहीं अधिक गहराने लगी हैं।
घटनाएँ जो सोचने पर मजबूर करती हैं: 2024 में दिल्ली के साकेत इलाके की एक घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। एक युवा जोड़ा, जो सोशल मीडिया पर ‘परफेक्ट कपल’ के नाम से मशहूर था, महज तीन साल के रिश्ते में इतना तनावित हो गया कि मामूली बहस एक क्रूर हिंसा में बदल गई। ऐसी घटनाएँ केवल आंकड़े नहीं, बल्कि उस सामाजिक मानसिकता का प्रतिबिंब हैं जिसमें रिश्तों की सतह पर तो सब ठीक दिखता है, लेकिन भीतर ज्वालामुखी पनप रहा होता है।
इसी तरह मुंबई में एक प्रसिद्ध आईटी प्रोफेशनल कपल, जिन्होंने साथ मिलकर एक स्टार्टअप शुरू किया था, व्यक्तिगत मतभेदों और करियर प्राथमिकताओं को लेकर अलग हो गए। उन्होंने खुले पत्र के माध्यम से कहा – “हम दोनों अपने-अपने जीवन में सफल हैं, लेकिन साथ नहीं चल पा रहे।” यह बयान आज के शहरी रिश्तों की एक बड़ी सच्चाई को उजागर करता है – जहां साझेदारी अब भावनाओं की नहीं, परिस्थितियों की मोहताज हो गई है।

संक्रमणकाल में खड़े हैं हम: संयुक्त परिवार से एकल जीवन की ओर, परंपरा से आधुनिकता की ओर – भारत एक संक्रमणकाल से गुजर रहा है। महिलाएं आत्मनिर्भर हुई हैं, पुरुष भावनात्मक रूप से खुलने लगे हैं, लेकिन इसी बदलाव के बीच सामंजस्य की कमी गहराती जा रही है।
रिश्तों का ‘इंस्टेंट’ दौर: आज के समय में लोग सब कुछ ‘फास्ट फॉरवर्ड’ मोड में चाहते हैं – प्यार, शादी और अब… अलगाव भी। कोर्ट में ‘म्युचुअल डिवोर्स’ की फाइलें तेजी से बढ़ रही हैं। आंकड़ों के मुताबिक, पिछले पाँच वर्षों में मेट्रो शहरों में तलाक के मामलों में लगभग 30% की बढ़ोत्तरी हुई है। क्या यह महज एक व्यक्तिगत निर्णय है, या फिर सामाजिक ताने-बाने में कोई बड़ी दरार?
समाज और मीडिया की भूमिका: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर रिश्तों की ग्लैमराइजेशन ने भी समस्याएँ बढ़ाई हैं। जब रिश्ते ‘कंटेंट’ बन जाएँ, तब निजीपन खो जाता है। कुछ यूट्यूब कपल्स का खुला ब्रेकअप, जो एक समय लाखों की प्रेरणा थे, आज डिजिटल विघटन का उदाहरण बन चुके हैं। लोग अब रिश्तों को निजी से ज्यादा सार्वजनिक समझने लगे हैं – और यह खतरनाक है।
समाधान की दिशा: रिश्तों को बचाने के लिए सबसे पहले संवाद को प्राथमिकता देनी होगी। ‘इगो’ की जगह ‘ईमोशन’ को देना होगा। समाज को भी एक समर्पित ढांचा देना होगा – चाहे वह प्री-मैरिज काउंसलिंग हो, या शादी के बाद समय-समय पर सलाह-सहायता केंद्र। रिश्तों को मजबूत करने की कोशिश जितनी घर में होनी चाहिए, उतनी ही सामाजिक स्तर पर भी।
निष्कर्ष: पति-पत्नी का रिश्ता किसी समझौते का नहीं, साझेदारी का है – जिसमें उतार-चढ़ाव आते हैं, लेकिन साथ चलने की मंशा बनी रहे, तो हर तूफान थम सकता है। जरूरी है कि हम रिश्तों को निभाने की कला फिर से सीखें, डिजिटल शोर को कम करें और भावनात्मक जुड़ाव को प्राथमिकता दें।
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