हाथरस: तीन मई 1997 को जब हाथरस को जिला घोषित किया गया, तो यहां के लोगों की आंखों में उम्मीदों का सूरज चमक उठा था। सोचा गया था कि अब हर गली में तरक्की दौड़ेगी, हर गांव में विकास गूंजेगा। लेकिन हुआ क्या? 28 साल बाद भी हाथरस वही है – अधूरा, उपेक्षित और सिर्फ़ राजनीतिक बदलावों का शिकार!

“जिला बना, मिटा… फिर बना… फिर बदला नाम!”

हाथरस जैसे बना, वैसे ही 2004 में सपा सरकार ने इसे भंग कर दिया।
जनपद न्यायालय तो यहीं रहा, लेकिन पुलिस और प्रशासन मथुरा-अलीगढ़ से चलने लगे।
2007 में हाईकोर्ट के आदेश से फिर बहाली हुई। लेकिन तब तक विकास पटरी से उतर चुका था।

और फिर शुरू हुआ नामों का खेल:

  • बसपा ने नाम रखा – महामायानगर

  • कल्याण सिंह ने फिर से किया – हाथरस

  • फिर मायावती आईं – दोबारा महामायानगर

  • सपा आई – फिर हुआ हाथरस!

यानी ज़िले की पहचान भी ठोस नहीं, सत्ता की मर्जी की मोहताज रही!

“उद्योग दम तोड़ चुके, मिलें बंद – सिर्फ़ टैग से पेट नहीं भरता!”

जिस हाथरस को कभी कानपुर के बाद उत्तर प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा औद्योगिक शहर कहा जाता था, वहां आज उद्योगों की हालत कराहती है।

  • दाल उद्योग, मूंगा-मोती, कांच उद्योग – सब धीरे-धीरे बंद होते गए।

  • तीन बड़ी मिलें बंद हो गईं।

  • ट्रांसपोर्ट नगर 28 साल में भी नहीं बन पाया।

हाँ, हसायन के इत्र, गुलकंद और गुलाब जल को जीआई टैग ज़रूर मिला है – पर ज़मीनी हकीकत कहती है,

“नाम है, काम नहीं!”

“ना मेडिकल कॉलेज, ना इंजीनियरिंग… शिक्षा-स्वास्थ्य दोनों में फिसड्डी!”

  • कोई मेडिकल कॉलेज नहीं!

  • कोई सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं!

  • 70 साल पुराना एमजी पॉलीटेक्निक आज भी उसी दर्जे पर अटका है।

और स्वास्थ्य?

“छोटी बीमारी भी हो जाए तो अलीगढ़ या आगरा जाना पड़ता है!”
क्या ये जिला कहलाने के लायक है?

“नई नगर पंचायतें नहीं, नए ब्लॉक नहीं, थाने वही पुराने – आखिर क्यों?”

  • ना महिला थाना बना, ना साइबर थाना

  • ना कोई नया ब्लॉक, ना कोई नगर पंचायत

  • भूगर्भ जल विभाग, प्रदूषण नियंत्रण, नेडा – किसी का दफ्तर यहां नहीं

हाथरस आज भी आधा जिला, आधा उपेक्षा का इलाका बना हुआ है।

“तो क्या सिर्फ़ जिला बनने से विकास हो जाता है?”

हाथरस की कहानी बताती है कि सिर्फ़ ‘जिला’ कह देने से विकास नहीं होता। जब तक:

  • स्थायी राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं होगी

  • बुनियादी ढांचे में निवेश नहीं होगा

  • और जनता की आवाज़ को सिर्फ़ चुनावी मंच तक सीमित रखा जाएगा

तब तक हाथरस जैसे जिले राजनीति का खेल बनते रहेंगे, और लोग पूछते रहेंगे – “कब मिलेगा हमें पूरा हक?”

"गांव से शहर तक, गलियों से सड़क तक- आपके इलाके की हर धड़कन को सुनता है "जिला नजर" न्यूज़ नेटवर्क: नजरिया सच का

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