हाथरस: गरीबों को सस्ती दवाएं देने के लिए केंद्र सरकार ने पूरे देश में ‘प्रधानमंत्री जन औषधि योजना’ का बिगुल बजाया था। मकसद था कि आम आदमी को राहत मिले, दवा माफिया पर लगाम लगे। लेकिन हाथरस में यह योजना अब दम तोड़ रही है — और वजह है डॉक्टरों की बेरुखी, मरीजों की ग़लतफ़हमियाँ और सरकारी तंत्र की ढिलाई।

16 में से 9 जन औषधि केंद्र बंद — बाकी ICU में हैं!

हाथरस में कुल 16 जन औषधि केंद्र खोले गए थे। आज की तारीख़ में 9 पर ताले लटक रहे हैं, और बाक़ी में भी हालत ICU जैसी है — न दवा बिक रही है, न उम्मीद बची है।

डॉक्टरों का ‘ब्रांड प्रेम’ बना गरीबों की परेशानी

केंद्र संचालक चीख-चीखकर कह रहे हैं —

“शुरू में डॉक्टर जन औषधि की दवाएं लिखते थे, अब नहीं लिखते। प्राइवेट डॉक्टरों को तो जैसे इस स्कीम से एलर्जी है, और सरकारी डॉक्टर भी अब ‘ब्रांडेड’ का राग अलापते हैं।”

मतलब साफ है — जनता की जेब खाली हो, पर दवा वही जो कंपनी बोले।
सरकारी अस्पताल में बैठे डॉक्टर, जो जनता के लिए हैं, वही योजना की रीढ़ तोड़ रहे हैं।

“400 रुपये बचत भी मुश्किल”, बोले दुकानदार

आप सोचिए — एक जन औषधि केंद्र चलाने वाले को दिनभर की मेहनत के बाद 400 रुपये की भी बचत नहीं हो रही।
और किराया? ₹5,000 से ₹7,000 महीना। मतलब दुकान चला नहीं रहे, नुकसान उठा रहे हैं।

“दवा है ही नहीं, क्या बेचें?” — स्टॉक की भी आफत

केंद्र संचालकों का दर्द यहीं खत्म नहीं होता —
जब मरीज आता है, तो ज़रूरी दवा होती ही नहीं।
बोलते हैं —

“ऑर्डर देते हैं, लेकिन समय पर दवाएं मिलती नहीं। ग्राहक लौट जाता है, अगली बार आता ही नहीं।”

मरीजों में भ्रम: “सस्ती दवा मतलब कम असर”

एक और बड़ी वजह — लोगों के मन में बैठा भ्रम:
“जेनरिक दवा सस्ती है, मतलब घटिया है!”
जबकि जानकार कह रहे हैं —

“जेनरिक और ब्रांडेड दवाओं में फर्क सिर्फ नाम और प्रचार का है, असर तो बराबर है।”

कहां है सिस्टम? कोई पूछने वाला नहीं!

  • डॉक्टरों पर न कोई सख्ती

  • दवाओं की सप्लाई का कोई ठोस सिस्टम नहीं

  • प्रचार-प्रसार न के बराबर

  • संचालक खामोश, प्रशासन बेपरवाह

अब क्या हो?

  • डॉक्टरों को जवाबदेह बनाना होगा

  • लोगों को जागरूक करना होगा

  • दवाओं की सप्लाई चेन मजबूत करनी होगी

  • और सबसे जरूरी — सरकार को अब आंखें खोलनी होंगी।

जन औषधि मर रही है, और इसके साथ-साथ मर रही है उस आम आदमी की उम्मीद, जो सोचता था कि सरकार उसके लिए कुछ कर रही है।

 

"गांव से शहर तक, गलियों से सड़क तक- आपके इलाके की हर धड़कन को सुनता है "जिला नजर" न्यूज़ नेटवर्क: नजरिया सच का

Exit mobile version