उत्तर प्रदेश की राजनीति का केंद्र हमेशा से ही संतुलन और संघर्ष का मैदान रहा है। यहां सत्ता का सूत्रधार बनना आसान नहीं; यह एक जटिल जाल है, जहां जातीय समीकरण, क्षेत्रीय आकांक्षाएं और केंद्रीय निर्देश आपस में उलझते हैं। ऐसे में, भाजपा ने अपने उत्तर प्रदेश प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पंकज चौधरी का चयन कर एक नया अध्याय जोड़ दिया है। सात बार के सांसद चौधरी, जो महराजगंज की धनाढ्य पृष्ठभूमि से आते हैं, न केवल कुर्मी समाज के एक प्रभावशाली चेहरे हैं, बल्कि गोरखपुर-नेपाल सीमा के रणनीतिक गलियारों में अपनी पकड़ के लिए भी जाने जाते हैं। लेकिन सवाल यह है: क्या यह चयन योगी आदित्यनाथ सरकार को मजबूत करने का प्रयास है, या फिर संगठन और सत्ता के बीच टकराव को नई ईंधन देने वाला कदम? 2027 के विधानसभा चुनावों की पृष्ठभूमि में यह फैसला भाजपा की रणनीति का आईना बन चुका है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह द्वारा प्रदेश अध्यक्ष के चयन में क्षेत्रीय संतुलन की अनदेखी एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा लगती है। 2024 के लोकसभा चुनावों में कुर्मी बेल्ट – संतकबीरनगर, बस्ती, श्रावस्ती, अंबेडकरनगर, अयोध्या, बाराबंकी, फतेहपुर, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, बांदा-चित्रकूट, प्रयागराज, फूलपुर, लखीमपुर खीरी और सीतापुर जैसी सीटों – पर भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। इन क्षेत्रों में कुर्मी वोट निर्णायक साबित हुए, और समाजवादी पार्टी का पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूला भाजपा की नींव हिला गया। ऐसे में, पंकज चौधरी का उदय एक स्पष्ट संदेश है: कुर्मी समाज को पुनः जोड़ने के लिए भाजपा अब धनाढ्य और प्रभावशाली चेहरों पर दांव लगा रही है। चौधरी की जीत महराजगंज में तो हुई, लेकिन अन्य कुर्मी-प्रधान सीटों पर हार ने पार्टी को झकझोर दिया। यहां तक कि अपना दल (सोनेलाल) के साथ गठबंधन की धुरी – अनुप्रिया पटेल की सीट पर भी वोटों का अंतर घटा, जो कुर्मी वोटों के क्षरण का स्पष्ट संकेत है।
चौधरी का आगमन गोरखपुर को उत्तर प्रदेश भाजपा का नया शक्ति केंद्र बना रहा है। यह शहर, जो योगी आदित्यनाथ का गढ़ है, अब संगठनात्मक रूप से और मजबूत हो गया है। लेकिन यह संतुलन कितना नाजुक है? पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड और बृज क्षेत्र के कार्यकर्ता पहले से ही उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। मंत्रिमंडल विस्तार और संगठनिक समायोजन में इन क्षेत्रों की आवाज दब सकती है, जिससे आंतरिक विद्रोह की आशंका बढ़ जाती है। चौधरी की भूमिका यहां निर्णायक होगी। यदि वे योगी सरकार के साथ कदम मिलाकर चलेंगे – जैसे कि निगमों, आयोगों के रिक्त पदों पर कार्यकर्ताओं का समावेशी समायोजन और युवा नेताओं को जिम्मेदारियां सौंपना – तो 2027 के चुनावों में भाजपा की जड़ें गहरी होंगी। यह न केवल कुर्मी समाज को साधेगा, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से अनुप्रिया पटेल जैसे सहयोगियों की ‘बड़बोली’ पर भी लगाम लगाएगा, जो अक्सर फिजूल की फुंकार बन जाती है। लेकिन यदि चौधरी संगठन की उपेक्षा को मुद्दा बनाकर सत्ता पर दबाव डालेंगे, बिना योगी से सामंजस्य के ‘बांधने’ की कोशिश करेंगे, तो टकराव अपरिहार्य है। याद रहे, उत्तर प्रदेश में भाजपा की सफलता हमेशा योगी-मोदी समन्वय पर टिकी रही है; कोई भी दरार 2027 को महंगा पड़ सकती है।
फिलहाल, यह चयन केंद्रीय नेतृत्व की दूरदर्शिता का प्रमाण लगता है। अगले एक महीने में कार्यकर्ताओं को सरकार में भागीदारी देकर सहयोग सुनिश्चित करना होगा, उसके बाद संगठनिक पुनर्गठन से 2029 के लोकसभा चुनावों तक पार्टी को अपराजेय बनाना लक्ष्य है। लेकिन चौधरी की परीक्षा आसान नहीं। उन्हें न केवल कुर्मी बेल्ट को पुनः जीतना होगा, बल्कि पूरे प्रदेश को एकजुट करना होगा। भाजपा को यह समझना चाहिए कि उत्तर प्रदेश की राजनीति जाति से ऊपर उठकर विकास और शासन पर टिकी है। यदि चौधरी साधक बनेंगे, तो यह चयन इतिहास रचेगा; अन्यथा, यह एक और आंतरिक कलह का बीज बो देगा। समय ही बताएगा कि पंकज चौधरी योगी के सहयोगी हैं या चुनौती। लेकिन एक बात निश्चित है – 2027 का युद्ध मैदान अब तैयार हो चुका है।
(संपादकीय टिप्पणी: यह विश्लेषण वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर आधारित है। पाठकों से अपेक्षा है कि वे स्वतंत्र रूप से तथ्यों की जांच करें।)


