
आगरा की ऐतिहासिक रामबारात, जो कभी जन-जन की आस्था, सहभागिता और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक थी, आज पूँजीपतियों की आपसी खींचतान, कुछेक पार्षदों की मनमानी और वीआईपी संस्कृति के आरोपों के बोझ तले कराह रही है। यह आयोजन, जो कभी सामूहिक भक्ति और समुदाय की एकता का उत्सव हुआ करता था, अब धीरे-धीरे एक “प्राइवेट शो” में तब्दील होता जा रहा है। सबसे दुखद विडंबना यह है कि इस उत्सव की असली आत्मा—साधारण दर्शक, जो इसे जीवंत बनाते हैं—आज सबसे अधिक उपेक्षित और हाशिए पर धकेले जा रहे हैं।
जनकपुरी का मंच और मर्यादा का ह्रास
जनकपुरी सज चुकी है, मंचन का दौर चल रहा है, लेकिन खबरें आ रही हैं कि राजा दशरथ का पात्र निभाने वाले महोदय अपने कथित अपमान का हवाला देकर लीला को बीच में ही छोड़कर विदेश जा रहे हैं। यह घटना न केवल आयोजन की गरिमा पर प्रश्नचिह्न लगाती है, बल्कि हमारी धार्मिक आस्थाओं और सांस्कृतिक मूल्यों का भी मखौल उड़ाती है। रामबारात जैसा ऐतिहासिक आयोजन, जो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों का प्रतीक है, आज स्वार्थ, अहंकार और दिखावे की भेंट चढ़ता नजर आ रहा है।
वीआईपी संस्कृति और जनता की उपेक्षा
रामबारात का मूल उद्देश्य था—समाज के हर वर्ग को एक सूत्र में पिरोना, जहाँ अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा, सभी एक साथ आस्था के रंग में रंग जाएँ। लेकिन आज यह आयोजन कुछ प्रभावशाली लोगों के निजी स्वार्थों का अखाड़ा बन चुका है। पूँजीपतियों की आपसी प्रतिस्पर्धा और वीआईपी संस्कृति ने इसकी पवित्रता को दागदार किया है। विशेष सुविधाओं और प्राथमिकताओं के नाम पर आम दर्शकों को किनारे कर दिया जाता है। जो जनता इस उत्सव की रीढ़ है, उसे ही मंच से दूर रखा जा रहा है। क्या यही हमारी संस्कृति की मर्यादा है?
संस्कृति की रक्षा या स्वार्थ की जीत?
रामायण के आदर्श हमें सिखाते हैं कि मर्यादा, समर्पण और सामूहिक कल्याण ही सच्चे उत्सव का आधार हैं। लेकिन रामबारात का वर्तमान स्वरूप इन आदर्शों से कोसों दूर है। जब आयोजन की आत्मा ही निजी स्वार्थों के हवाले हो जाए, तो वह जनता का उत्सव कैसे रह सकता है? यह समय है कि हम इस धरोहर को बचाने के लिए कदम उठाएँ। आयोजन समितियों को पारदर्शिता और समावेशिता के सिद्धांत अपनाने होंगे। जनता को इस उत्सव का केंद्र बनाना होगा, न कि कुछेक लोगों की सनक का साधन।
रामबारात केवल एक आयोजन नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक पहचान और सामूहिक आस्था का प्रतीक है। इसे बचाने के लिए समाज के हर वर्ग को एकजुट होना होगा। आयोजकों को चाहिए कि वे इस उत्सव को फिर से जनता का उत्सव बनाएँ, जहाँ न कोई वीआईपी हो, न कोई उपेक्षित। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि रामबारात का मंच श्रीराम की मर्यादा को साकार करे, न कि स्वार्थ और अहंकार का प्रदर्शन।
क्या हम अपनी इस धरोहर को निजी स्वार्थों के हवाले होने देंगे? या फिर इसे उसकी मूल गरिमा और जन-आस्था के साथ पुनर्जनन करेंगे? यह प्रश्न केवल रामबारात तक सीमित नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक मर्यादा और सामाजिक एकता की रक्षा का भी है। आइए, इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाने का संकल्प लें, ताकि यह फिर से जनता की आस्था का उत्सव बन सके।