जयन्ती विशेष:
आज 19 नवंबर का दिन भारतीय इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ने वाली नारी शक्ति का प्रतीक है। 197वीं जयंती पर हम स्मरण करते हैं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को, जिनकी तलवार की धार ने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी। “खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी” – सुभद्रा कुमारी चौहान की इस पंक्ति ने उनकी वीरता को अमर कर दिया। उनका जन्म 19 नवंबर 1828 को काशी (वाराणसी) में एक मराठा ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जहाँ वे मणिकर्णिका तांबे के नाम से जानी जाती रहीं। मात्र 29 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी मशाल जलाई, जो आज भी युवाओं को प्रेरित करती है।
प्रारंभिक जीवन: नन्ही मनु से रानी लक्ष्मीबाई तक
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म मोरोपंत तांबे और भागीरथी बाई के घर हुआ। पिता की नौकरी के सिलसिले में काशी पहुँचे परिवार ने उन्हें ‘मनु’ नाम दिया, जो उनकी चंचलता और जिज्ञासा का प्रतीक था। बाल्यकाल से ही मनु घुड़सवारी, तलवारबाजी और धनुर्विद्या में निपुण हो गईं। वे पिता के साथ अंग्रेजी किले के पास खेलतीं, जहाँ सैनिकों से युद्धकौशल सीखतीं। मात्र 4 वर्ष की आयु में माता के देहांत के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी।
1842 में, जब वे केवल 14 वर्ष की थीं, तब उनका विवाह झांसी के महाराजा गंगाधर राव नेवलकर से हुआ। विवाह के बाद उन्हें लक्ष्मीबाई नाम मिला। दंपति को एक पुत्र दामोदर राव प्राप्त हुआ, लेकिन वह मात्र 4 माह का होने पर चल बसा। 1853 में महाराजा गंगाधर राव का भी निधन हो गया, जिससे झांसी की गद्दी पर संकट आ गया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ नीति के तहत राज्य को हड़पने का प्रयास किया, लेकिन लक्ष्मीबाई ने दामोदर राव को गोद लेकर राज्य की रक्षा का संकल्प लिया। उन्होंने लॉर्ड डलहौजी को पत्र लिखकर अपनी मांग रखी: “मैं अपनी झांसी नहीं दूँगी।”
1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम: तलवार की धार पर स्वतंत्रता की ललकार
1857 का सिपाही विद्रोह जब पूरे देश में फैला, तो झांसी की रानी ने इसे स्वतंत्रता की पहली चिंगारी माना। मार्च 1858 में अंग्रेज जनरल ह्यू रोज ने झांसी पर कब्जा करने का प्रयास किया। रानी ने किले की कमान संभाली और 12 दिनों तक चले घेराबंदी में 5,000 सैनिकों के साथ डटकर मुकाबला किया। उन्होंने स्वयं पुरुष वेश में तलवार लहराई, घोड़े पर सवार होकर दुश्मनों को खदेड़ा। “खूब लड़ी मर्दानी” की यह गाथा लोकगीतों और कविताओं में जीवित है।

झांसी की विजय के बाद वे कालपी पहुँचीं, जहाँ तात्या टोपे और नाना साहेब के साथ गठबंधन किया। ग्वालियर पर कब्जा कर उन्होंने वहाँ का किला भी जीता। लेकिन 17-18 जून 1858 को कोटा की सराय (ग्वालियर के पास) में ब्रिटिश सेना से अंतिम युद्ध लड़ा। घायल होकर भी उन्होंने कहा, “मैं झाँसी की रानी हूँ, पकड़ में नहीं आऊँगी।” उनकी मृत्यु ने विद्रोह को थोड़ा कमजोर किया, लेकिन उनकी शहादत ने स्वतंत्रता की ज्वाला को और प्रज्वलित कर दिया।
विरासत: नारी शक्ति का प्रतीक, बच्चों की प्रेरणा
झांसी की रानी केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि नारी सशक्तिकरण की मिसाल हैं। उनकी कहानियाँ बच्चों की किताबों, लोककथाओं और सिनेमा में अमर हैं। वीरता के किस्से आज भी स्कूलों में पढ़ाए जाते हैं, जो लड़कियों को साहस सिखाते हैं। 2025 में, जब भारत महिला सशक्तिकरण की दिशा में आगे बढ़ रहा है, रानी लक्ष्मीबाई की जयंती हमें याद दिलाती है कि साहस लिंग से परे है।
उनकी स्मृति में झांसी में रानी महल और स्मारक बने हैं, जहाँ हर वर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं। कवि-लेखकों ने उनकी गाथा को अमर किया – सुभद्रा कुमारी से लेकर वृंदावनलाल वर्मा तक। आज, जब हम उनकी जयंती मना रहे हैं, तो आइए संकल्प लें: उनकी तरह देशभक्ति की ज्योति जलाए रखें।
झांसी की रानी की जयंती पर राष्ट्र नमन करता है। उनकी शहादत हमें सिखाती है – स्वतंत्रता का मूल्य सदा ऊँचा होता है।
जय हिंद!
🔹संपादक -सन्त कुमार भारद्वाज “सन्त”