आगरा। क्या पत्रकारिता भी अब संस्था और ओहदे के तराजू पर तौली जाएगी? क्या एक पत्रकार की सच्चाई, उसकी संस्था के नाम से तय होगी? ये सवाल आज ज़रूरी हो गया है, क्योंकि मौजूदा दौर में पत्रकारों के बीच ‘बड़ा’ और ‘छोटा’ का भेद साफ़ दिखने लगा है।

कुछ लोग बड़ी मीडिया संस्थाओं में काम करके खुद को ‘बड़ा पत्रकार’ मान बैठते हैं। लेकिन पत्रकारिता का असल मूल्यांकन न तो उसके संस्थान से होता है, न उसकी पोशाक से। पत्रकार वही बड़ा है, जो सच के साथ खड़ा रहे, चाहे सामने सत्ता हो या सिस्टम।

छोटे पोर्टल या ग्रामीण समाचार माध्यमों से जुड़े पत्रकार आज भी ज़मीन से जुड़ी हकीकत जनता तक ला रहे हैं। वे एसी कमरों से नहीं, बल्कि धूप-धूल और जोखिमों के बीच काम कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, कई बड़े नाम महज़ प्रेस रिलीज़ पढ़कर पत्रकारिता का दावा कर रहे हैं।

ग्रामीण पत्रकार शुभम चाहर कहते हैं —

“पत्रकारिता नौकरी नहीं, जनसेवा है। और इस सेवा में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। एक कड़ी कमजोर हो जाए तो पूरी पत्रकारिता चरमरा जाती है।”



उनके खिलाफ हाल ही में एक झूठा मुकदमा दर्ज किया गया है। शुभम इसे एक पत्रकार के साहस को तोड़ने की साज़िश बताते हैं। उनका मानना है कि यह केवल उनके खिलाफ नहीं, बल्कि उन सभी पत्रकारों के खिलाफ चेतावनी है जो सच्चाई के पक्ष में खड़े होते हैं।

शुभम कहते हैं:

“अगर आज मेरे खिलाफ मुकदमा हो रहा है, तो कल किसी और के खिलाफ होगा। यह इत्तेफाक नहीं, एक रणनीति है — सच को कुचलने की।”

उनका यह बयान न केवल ग्रामीण पत्रकारों के लिए हौसला है, बल्कि पूरे पत्रकारिता जगत के लिए एक चेतावनी भी। हमें यह समझना होगा कि पत्रकार कोई ब्रांड नहीं, एक ज़िम्मेदारी है। और जो इस ज़िम्मेदारी को ईमानदारी से निभा रहा है, वही असली और बड़ा पत्रकार है।


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