JNN: भारत में आस्था अक्सर तर्क से बड़ी हो जाती है। यही कारण है कि यहाँ मंदिर के बाहर घंटियों की आवाज़ से ज़्यादा तेज़ कभी-कभी साँसों की घुटन होती है, लेकिन हम सुनना नहीं चाहते। मुंबई की एक अदालत का हालिया फैसला—जिसमें सार्वजनिक स्थान पर कबूतरों को दाना डालने पर ₹5000 का जुर्माना लगाया गया—इसी टकराव की एक स्पष्ट और साहसी मिसाल है। यह फैसला कबूतरों के खिलाफ नहीं, बल्कि उस मानसिकता के खिलाफ है जो भावुकता के नाम पर विज्ञान, कानून और सार्वजनिक स्वास्थ्य को कुचल देती है।
हमारे समाज में कबूतरों को दाना डालना “पुण्य” माना जाता है। सुबह-सुबह बालकनी, छत या पार्क में मुट्ठी भर दाना डालकर आत्मसंतोष पा लिया जाता है—मानो किसी बड़ी मानवता की सेवा हो गई हो। लेकिन सवाल यह है कि क्या बिना परिणाम समझे किया गया कर्म सच में दया कहलाता है? चिकित्सा विज्ञान लगातार चेतावनी देता रहा है कि कबूतरों की सूखी बीट हवा में घुलकर क्रिप्टोकोकोसिस, हिस्टोप्लास्मोसिस, हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस और साल्मोनेला जैसी जानलेवा बीमारियाँ फैला सकती है। ये बीमारियाँ कोई काल्पनिक डर नहीं हैं, बल्कि अस्पतालों में भर्ती असली मरीज़ों की सच्ची कहानियाँ हैं। दमा, फेफड़ों के रोगी, बुज़ुर्ग और बच्चे—सबसे पहले इन्हीं की साँसें दांव पर लगती हैं।
मुंबई की अदालत ने इस मामले को केवल नगर निगम के आदेश के उल्लंघन तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे सीधे-सीधे जनस्वास्थ्य के लिए खतरा माना। IPC की धाराओं के तहत सज़ा यह संकेत देती है कि अब राज्य सिर्फ बीमारियों का इलाज नहीं करना चाहता, बल्कि बीमारी पैदा करने वाली सामाजिक आदतों को भी रोकना चाहता है। यह देश में पहली बार हुआ है कि कबूतरों को दाना डालने जैसे सामाजिक रूप से स्वीकृत कृत्य को अपराध की श्रेणी में रखा गया है। यह फैसला बताता है कि कानून अब भावनाओं से नहीं, उनके प्रभावों से संवाद करेगा।
इस पूरे विवाद में सबसे असहज सवाल धर्म और परंपरा से जुड़ा है। कुछ लोग इसे आस्था पर हमला बता रहे हैं, लेकिन क्या धर्म कभी बीमारी फैलाने की अनुमति देता है? क्या किसी भी धार्मिक ग्रंथ में यह लिखा है कि पुण्य कमाने के लिए दूसरों की जान जोखिम में डाल दी जाए? खुद सरकार और स्वास्थ्य एजेंसियाँ साफ़ कह चुकी हैं कि कबूतरों को दाना खिलाना कोई धार्मिक अनिवार्यता नहीं है, फिर भी विरोध जारी है। दरअसल यह विरोध आस्था का नहीं, ज़िद का है—अपनी आदतें न बदलने की ज़िद।
शहर अब गाँव नहीं रहे। घनी आबादी, ऊँची इमारतें, सीमित हवा और साझा स्थानों के बीच एक छोटी सी लापरवाही बड़े संकट में बदल जाती है। बालकनी में डाला गया दाना सिर्फ कबूतरों को नहीं बुलाता, बल्कि उनके साथ बीमारी, गंदगी और संक्रमण की पूरी श्रृंखला भी खड़ी कर देता है। विडंबना यह है कि वही लोग जो मास्क, वैक्सीन और वैज्ञानिक चेतावनियों पर सवाल उठाते हैं, वे पुण्य के नाम पर शहरों को जैविक कचरे का अड्डा बना देते हैं।
इस बहस में यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि कबूतर दोषी नहीं हैं। वे तो अपने स्वभाव के अनुसार जी रहे हैं। दोषी हम हैं—हमारी अवैज्ञानिक भावुकता, हमारी सुविधा की आस्था और हमारी सामूहिक गैर-जिम्मेदारी। अगर सच में दया करनी है तो नियंत्रित, सुरक्षित और वैज्ञानिक तरीकों से कीजिए—पशु कल्याण संगठनों के माध्यम से, खुले सार्वजनिक स्थलों पर नहीं।
मुंबई अदालत का यह फैसला हमें साफ़ संदेश देता है कि आस्था निजी हो सकती है, लेकिन उसका असर सार्वजनिक जीवन को बीमार नहीं कर सकता। दया का मतलब नुकसान पहुँचाना नहीं होता और कानून अब इस फर्क को समझने लगा है। यह फैसला सिर्फ एक शहर या एक मामले तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिए चेतावनी है कि अगर हमने समय रहते अपनी आदतें नहीं बदलीं, तो आने वाले समय में “आस्था” भी अदालत के कटघरे में खड़ी होगी।
आज ज़रूरत इस बात की है कि हम पुण्य को नए सिरे से परिभाषित करें। वह कर्म पुण्य नहीं हो सकता जो किसी बच्चे की साँस छीन ले। वह आस्था पवित्र नहीं हो सकती जो अस्पतालों की कतारें बढ़ा दे। मुंबई अदालत का यह फैसला कबूतरों के खिलाफ नहीं, बल्कि बेहिसाब भावुकता के खिलाफ है। यह याद दिलाने के लिए कि इंसान होने की पहली शर्त है—दूसरे इंसान की ज़िंदगी का ख़याल। अगर आस्था सच में सच्ची है, तो उसे विज्ञान से डर नहीं लगेगा।





