संपादकीय: डिजिटल युग में हर स्मार्टफोन एक निजी किला है – कॉल्स, मैसेज, लोकेशन, और स्मृतियां उसकी दीवारों में कैद। लेकिन क्या होगा जब सरकार का एक ऐप इस किले में जबरन प्रवेश करे? संचार साथी ऐप का विवाद ठीक यही सवाल खड़ा करता है। दूरसंचार विभाग (DoT) द्वारा लॉन्च किया गया यह ऐप, जो आईएमईआई सत्यापन, चोरी फोन ट्रैकिंग और साइबर फ्रॉड रिपोर्टिंग का दावा करता है, ने रातोंरात राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया। 28 नवंबर को जारी आदेश के तहत नए स्मार्टफोन्स में इसकी पूर्व-स्थापना अनिवार्य कर दी गई थी, लेकिन विपक्ष के तीखे विरोध और गोपनीयता चिंताओं के बीच आज ही सरकार ने यूटर्न ले लिया। यह फैसला स्वागतयोग्य है, लेकिन सवाल बरकरार हैं: क्या यह सुरक्षा का साधन है या निजता पर सेंध? आइए, इस विवाद की परतें खोलें।
सुरक्षा की ढाल: ऐप की ताकत और जरूरत
संचार साथी को ‘सिटिजन-सेंट्रिक’ बताते हुए सरकार ने इसे साइबर अपराधों के खिलाफ एक हथियार के रूप में पेश किया है। कल्पना कीजिए: आपका फोन चोरी हो जाए, तो IMEI ब्लॉकिंग से चोर उसे रीसेल नहीं कर पाएगा। नाम से जुड़े फर्जी सिम की जांच, व्हाट्सएप पर फेक लिंक्स की रिपोर्टिंग – ये फीचर्स वाकई क्रांतिकारी हैं। DoT के आंकड़े चकित करने वाले हैं: 1.4 करोड़ डाउनलोड, 26 लाख चोरी फोन ट्रेस, और 7 लाख रिकवर। पिछले 24 घंटों में ही 6 लाख नए यूजर्स जुड़े, जो रोज 2,000 फ्रॉड रिपोर्ट्स भेज रहे हैं। केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया का स्पष्टिकरण कि ‘जासूसी असंभव है’ और ऐप केवल सीमित एक्सेस (जैसे कैमरा या माइक नहीं) लेता है, निश्चिंत करता है।
भारत जैसे देश में, जहां साइबर फ्रॉड सालाना अरबों का नुकसान पहुंचाते हैं, ऐसा ऐप एक आवश्यकता है। लेकिन आवश्यकता को अनिवार्यता में बदलना कहां तक जायज? विपक्ष का विरोध इसी बिंदु पर केंद्रित है – और सही मायने में।
गोपनीयता का घाव: अनुच्छेद 21 पर सवाल
कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी और केसी वेणुगोपाल ने इसे ‘निगरानी का टूल’ करार दिया, जो संविधान के अनुच्छेद 21 (निजता का अधिकार) का उल्लंघन है। क्या सरकार का इरादा शुद्ध है? या यह पेगासस जैसे पुराने घावों को फिर से कुरेद रहा है? X (पूर्व ट्विटर) पर ट्रेंडिंग पोस्ट्स में यूजर्स पूछ रहे हैं: “माताओं-बहनों के फोन में भी यह ऐप? CCTV फोटोज पर गोपनीयता की दुहाई देने वाली सरकार अब क्या कहेगी?” ऐपल जैसी कंपनियों का इनकार भी चिंताजनक है – वे प्राइवेसी पॉलिसी का हवाला देकर पीछे हट रही हैं।
यह विवाद केवल तकनीकी नहीं, लोकतांत्रिक है। जब राज्य बिना सहमति के नागरिकों के डेटा पर कब्जा करने की कोशिश करता है, तो विश्वास टूटता है। विपक्ष का हंगामा – चाहे वह ‘ओरबानिकल’ लगे – ने सरकार को झुकने पर मजबूर किया। यह लोकतंत्र की जीत है, जहां जन-आवाज आदेशों से ऊपर है।
यूटर्न का सबक: पारदर्शिता ही रास्ता
आज का फैसला – अनिवार्यता हटाना – सरकार की संवेदनशीलता दिखाता है। सिंधिया ने कहा, “यह ऐप आपकी मर्जी का है, डिलीट कर सकते हैं।” लेकिन यह यूटर्न सवाल भी उठाता है: क्या आदेश जल्दबाजी में था? संसद की बहस के बीच आया यह कदम साबित करता है कि नीतियां जन-चर्चा से मजबूत होती हैं। अब जरूरत है एक मजबूत फ्रेमवर्क की:
- संसदीय निगरानी: ऐप के डेटा उपयोग पर स्वतंत्र ऑडिट।
- यूजर कंट्रोल: स्पष्ट प्राइवेसी सेटिंग्स और ऑप्ट-आउट विकल्प।
- जागरूकता अभियान: फ्रॉड से बचाव पर फोकस, न कि जबरन स्थापना पर।
X पर BJP समर्थक इसे ‘डिजिटल रक्षक’ बता रहे हैं, जबकि विपक्ष ‘जासूसी का हथियार’। सच्चाई बीच में है – एक ऐसा ऐप जो सुरक्षा दे, लेकिन स्वतंत्रता न छीने।
निष्कर्ष: संतुलन की पुकार
संचार साथी विवाद हमें सिखाता है कि डिजिटल भारत का सपना गोपनीयता के बिना अधूरा है। सरकार ने सही कदम उठाया, लेकिन भविष्य में ऐसी नीतियां पारदर्शी और समावेशी हों। नागरिकों से अपील: ऐप डाउनलोड करें, लेकिन सतर्क रहें। और सरकार से: सुरक्षा का वादा निजता का सम्मान करे। क्योंकि सच्ची आजादी वह है, जहां फोन आपका साथी बने, न कि निगरानी का नेटवर्क।
– संपादकीय टीम (यह संपादकीय तथ्यों पर आधारित विश्लेषण है। पाठकों के विचारों का स्वागत है।)
- रिपोर्ट – संत कुमार ‘संत”





