आगरा। वे अपने कुल जीवन के पचास साल रंग कर्मी के रूप में देने के लिए संकल्पित है मगर जिंदगी अलग अलग राम से उनके सामने चुनोती बनके आड़े खड़ी है। प्रति सप्ताह दो दिन डाईलेसिस कराने वाले व्यक्ति की दिनचर्या में लिखना पढ़ना निर्देशन और कार्य क्रमों का संयोजन करने के काम शामिल होना बहुत बडा काम ही नहीं चुनोती पूर्ण कार्य है।
ऐसे जज्बे वाले रंग कर्मी को आगारा रंग पुरोधा चुना जाना अदभुत निर्णय है। अनिल शुक्ला सत्तर के दशक से शुरू हुए नाटकों से पत्रकार बनके विख्यात निर्देशक रंगकर्मी बनकर ४९ वें साल में चल राज्य। उनकी उम्र इस समय 72‘ साल की है।
नगर की श्रंद्धाजलि संस्था की और अनिला शुक्ल को सुरसदन प्रेक्षा गृह में आयोजित स्मृति समारोह में प्रदान किया गया। इसके बाद शुल्क ने अपना धनवाद सम्बोधन दिया।
‘श्रद्धांजलि नाट्य समारोह’ में ‘रंग पुरोधा’ के बतौर सम्मानित
किए जाने के बाद दिया गया अनिल शुक्ल का धन्यवाद वक्तव्य:
————————————————————
‘श्रद्धांजलि समारोह समिति’ के अध्यक्ष, महासचिव, सभी सदस्यगण और सभागार में मौजूद देवियो और सज्जनों !
सबसे पहले मैं समारोह समिति का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा जिन्होंने मुझे ‘रंगपुरौधा सम्मान’ से नवाज़ा। लगभग पांच दशकों की रंगकर्म की सेवा के जवाब में राजधानी सहित अनेक शहरों में सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़े जाने की तुलना में अपने शहर में अपने साथी-सहयोगियों और चाहने वालों के बीच सम्मानित होना अलग तरह के सुख की अनुभूति देता है।
सन 1976 में जब मैंने देश के प्रमुख रंग शिल्पी, (अब दिवंगत) बंसी कौल के चरणों में बैठ कर आधुनिक रंगकर्म का ककहरा सीखा था तब कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उनका यह प्रारंभिक प्रशिक्षण आगे मुझे बहुत कुछ जानने और सीखने का अवसर प्रदान करने के साथ-साथ उन्चास साल की रंग यात्रा की शक्ति देगा और यदि आप सब की शुभकामनायें साथ रहीं तो कम से कम हाफ सेंचुरी तो पूरी करके ही निकलने की सामर्थ्य प्रदान करेगा।
सत्तर के दशक में मैंने जब रंगकर्म में दाखिला लिया तो हिंदी रंगमंच अपने उठान के शीर्ष पर था। हमने कल्पना भी नहीं की थी कि इतना जल्दी इसमें घुन लगना शुरू हो जायेगा। क्यों और किस कारण से, इसकी वजहेँ तब नहीं जान सके थे। अस्सी के दशक तक आते-आते हिंदी रंगमंच पूरे तौर पर बेदम हो गया। बीस साल बाद अहसास हुआ कि तकनीकी रूप से भले ही हिंदी रंगमंच कितनी भी फूं फ़ां करता रहा हो, इसके प्राणघात का मुख्य कारण हिंदी पट्टी में इसका बिना जड़ों के उगाने की कोशिशे करना है।
सन 2005 में जब मुझे इन कारणों का पता चला तो हम मियां-बीबी राजधानी दिल्ली छोड़कर अपने शहर आगरा लौटे, इस संकल्प के साथ कि हम अपने शहर के मूल नाटक, इसकी 4 सौ साल पुरानी लोक नाटकों की परम्परा भगत’ ‘को, जो पचास साल पहले ही लुप्तप्राय हो चुकी थी, उसे पुनर्जीवित करेंगे। भगत के वयोवृद्ध ख़लीफ़ा फूलसिंह यादव के नेतृत्व में सन 2008 में मैंने एक बड़े सांस्कृतिक आंदोलन का श्रीगणेश किया, जिसका परिणाम है कि आज ‘भगत’ न सिर्फ खड़ी हो गयी है बल्कि इसकी छाया में पुराने और नए कलाकारों का एक बड़ा दल खड़ा हो गया है जिसमें अभिनेत्रियां भी हैं जो इसके बीते इतिहास में कभी नहीं हुआ करती थीं और तब पुरुष ही स्त्री चरित्रों को निभाया करते थे।
हमारे नुक्कड़ नाटक ‘दीवारें’, ‘हाथीघाट पे अकबर’ ‘सात सहेलियां’ और ‘जाम के झाम में अकबर’ जब अपर भीड़ जोड़ते हैं या जब आगरा में दूसरी संस्थाओं को नुक्कड़ नाटकों करते देखता हूँ तो बड़ा सुख मिलता है। 1970 के दशक में इसका सिलसिला मैंने ही शुरू किया था। इस नए नवेले प्रयोगधर्मी नाटक को लेकर तब अपनी संस्था के भीतर और
बाहर, सब जगह हमें संघर्ष करना पड़ा था और अंततः अपार दर्शक समुदाय ने हमरी जीत बुलंदी की घोषणा की थी। आपमें से बहुत से मित्र यहाँ मौजूद है जिन्होंने हमारी ‘कथावाचन’ की प्रस्तुतियों को देखा है। यह कहानी के रंग पाठ की नई परंपरा है, चार साल पहले जिसे हमने शुरू किया है। आने वाले सन 2026 में हम एक पूर्णकालिक एकल नाट्य प्रस्तुति लेकर आपके समक्ष आने वाले हैं जिसमें एक ही कलाकार पूरे 2 घंटे मंच पर अपनी प्रस्तुति करेगा। हम इसी वर्ष एक पूर्णकालिक मंच नाटक (प्रोसीनियम थिएटर) लेकर भी आपके समक्ष हाज़िर होने की कोशिश में हैं।
सांस्कृतिक क्रियाकर्म से जूझने के साथ-साथ मुझे समय-समय पर अपने स्वास्थ्य के साथ भी संघर्ष करना पड़ता है लेकिन यह आप मित्रों का सहयोग और शुभकामनायें हैं जो मुझे लगातार शक्ति प्रदान करती रहती हैं। एक बार फिर आप सब का बहुत बहुत धन्यवाद। आप ऐसे ही हमें नवाज़े रहिये।

