आचार्य सन्त कुमार

JNN: 22 अप्रैल 2025 की दोपहर, जब पहलगाम की घाटियाँ पर्यटकों की चहल-पहल और स्थानीय जीवन की रफ्तार से सराबोर थीं, तब अचानक गोलियों की गूंज और दहशत के साए ने पूरे इलाके को थर्रा दिया। इस बर्बर आतंकी हमले में सुरक्षा बलों के जवानों के साथ-साथ कई दर्जन आम नागरिकों व पर्यटकों की भी नृशंस हत्या कर दी गई। यह हमला न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा पर हमला था, बल्कि मानवीय मूल्यों और सभ्यता के खिलाफ एक गहरा आघात भी।

ऐसे हमलों का उद्देश्य सिर्फ शरीरों को घायल करना नहीं होता, यह समाज की आत्मा को, उसकी एकता और विश्वास को भी लहूलुहान करने की कोशिश होती है। पहलगाम जैसे शांत, खूबसूरत और संवेदनशील इलाके को बार-बार निशाना बनाना इस बात का प्रतीक है कि आतंक की विचारधारा डर, घृणा और विघटन को हथियार बनाकर शांति के प्रयासों को कुचलना चाहती है।

अभी तो मेंहदी सूखी भी न थी: पहलगाँव की घाटी में इंसानियत की हत्या

यह हमला सिर्फ गोलियों से नहीं, बल्कि उन उम्मीदों पर भी चला गया था जो वर्षों की बातचीत, संवाद और सौहार्द्र की कोशिशों से बनी थीं। जिन हाथों में किताबें और कुदाल होनी चाहिए थी, वे अगर हथियार थामने लगे हैं, तो यह पूरे समाज के लिए एक चेतावनी है।

आज जरूरी है कि हम इस क्रूरता के आगे सिर्फ गुस्सा नहीं, बल्कि एकजुटता, संवेदनशीलता और दीर्घकालिक सोच के साथ खड़े हों। आतंक के खिलाफ केवल सैनिक मोर्चे ही नहीं, सामाजिक और वैचारिक मोर्चे भी खोलने होंगे। युवाओं को कट्टरता की गर्त से निकालकर अवसर, शिक्षा और समावेशन की राह पर लाना होगा।

सरकार और सुरक्षा एजेंसियों को जहां जवाबी कार्रवाई में सटीकता और दृढ़ता दिखानी होगी, वहीं समाज के सभी वर्गों को यह समझना होगा कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई केवल बंदूक से नहीं, बल्कि मन और सोच से भी लड़ी जाती है।

हम पहलगाम के उन शहीदों को सलाम करते हैं जिन्होंने कर्तव्य की वेदी पर अपने प्राण न्योछावर किए। साथ ही हम उन निर्दोष नागरिकों व पर्यटकों को नहीं भूल सकते जो इस हमले का निशाना बने — उनके परिवारों के साथ हमारी पूरी संवेदना है।

पर अब समय शोक का नहीं, संकल्प का है। हमें यह तय करना होगा कि हम डरकर नहीं, एक होकर, पूरी ताकत से इस आतंक की काली छाया के खिलाफ खड़े होंगे। क्योंकि जब तक इंसानियत जिंदा है, तब तक हिंसा की कोई भी कोशिश हमें बांट नहीं सकती।

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