JNN: कांग्रेस नेता राहुल गांधी एक बार फिर सुर्खियों में हैं। आईपीएस अधिकारी पूरन कुमार की संदिग्ध मौत के बाद उनके परिवार से मुलाकात करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि अगर आप दलित हैं, तो आपको कुचला जा सकता है, फेंका जा सकता है। इस बयान ने भारतीय राजनीतिक विमर्श में एक बार फिर वही प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या गांधी परिवार समाज में जातीय विभाजन को भुनाकर राजनीति करता है, या वह वंचित वर्गों की आवाज उठाने का प्रयास कर रहा है? पूरन कुमार, एक आदर्श आईपीएस अधिकारी माने जाते थे। उनकी अप्राकृतिक मौत के बाद परिवार ने आरोप लगाया कि उन्हें उनके सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण अलग-थलग किया गया। इस बीच राहुल गांधी परिवार से मिलने पहुंचे और सरकार से सख्त कार्रवाई की मांग की।
उन्होंने कहा कि कानून की रक्षा सभी के लिए समान रूप से होनी चाहिए और अगर दलित अधिकारी को न्याय नहीं मिलेगा, तो समाज में बराबरी का अधिकार भी सवालों में पड़ जाएगा। यह बयान राजनीतिक रूप से संवेदनशील था, क्योंकि इससे एक ओर दलित अधिकारों के प्रति जागरूकता का संदेश गया, वहीं विपक्ष ने इसे हिंदू समाज के भीतर दरार पैदा करने वाली भाषा बताया। भाजपा नेताओं और हरियाणा के कई प्रादेशिक दलों ने राहुल गांधी को जातीय आधार पर राजनीति करने का आरोप लगाया। उनका कहना था कि गांधी परिवार हमेशा हिंदू समाज को दलित, पिछड़ा और सवर्ण जैसी श्रेणियों में बांटकर वोट हासिल करने की कोशिश करता है। राजनीतिक टिप्पणीकारों का मत है कि यह बयान कांग्रेस की वही पुरानी रणनीति को दर्शाता है कि सामाजिक न्याय के नाम पर वर्ग विशेष को राजनीतिक रूप से सक्रिय करना।
1971-1977 के दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने “गरीबी हटाओ” नारे के साथ वंचित वर्गों का समर्थन हासिल किया। उस दौर में जब समाज समाजवादी आंदोलनों और जातीय असमानताओं से जूझ रहा था, कांग्रेस ने खुद को गरीबों और दलितों के पक्षधर दल के रूप में प्रस्तुत किया। हालांकि, विपक्ष इसे कांग्रेस की वोट बैंक नीति कहता रहा, जिसने हिंदू समाज के भीतर “गरीब बनाम अमीर” और “सवर्ण बनाम दलित” जैसी रेखाएँ गहरी कीं। 1980-1989 के दौरान राजीव गांधी ने बतौर प्रधानमंत्री भारत को बदलने का सपना दिखाया, तकनीकी और आधुनिकता की बातें कीं, पर शाह बानो केस में उनके निर्णय ने बहुसंख्यक समाज को नाराज़ कर दिया। भाजपा ने इस पर तुष्टिकरण और विभाजनकारी राजनीति का आरोप लगाया। 1990 का दशक भी कांग्रेस का जाति समीकरण की सियासत के लिए याद किया जाता है। तब मंडल आयोग के बाद जब जातीय राजनीति ने नया रूप लिया, कांग्रेस अपनी पारंपरिक जातीय-सामाजिक पकड़ खोती चली गई।
इस काल में भाजपा ने हिंदू एकता का नारा दिया, जबकि कांग्रेस ने आरक्षण और अल्पसंख्यक नीतियों के जरिए सामाजिक समानता का संदेश बनाए रखने की कोशिश की। 2004 से 2014 तक सोनिया गांधी और यूपीए शासन जिसके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे, ने अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार अधिनियम और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को बढ़ावा दिया। विपक्ष का तर्क था कि अल्पसंख्यक और जातीय समूहों को केंद्र में रखकर कांग्रेस ने बहुसंख्यक समाज के हितों को पीछे कर दिया। अब जबकि 2015 से 2025 तक की कांग्रेस राहुल गांधी के इशारे पर चल रही है। राहुल गांधी अपने राजनीतिक करियर के दौरान लगातार वंचित, पिछड़े और दलित वर्गों के मुद्दे तो उठा रहे हैं, लेकिन उनका मुंह तब बंद हो जाता है जब दलितों और पिछड़ों का शोषण कोई मुस्लिम व्यक्ति या समाज करता है। राहुल ने हैदराबाद के रोहित वेमुला प्रकरण पर खुलकर आवाज़ उठाई।
गुजरात के ऊना में दलित युवकों की पिटाई मामले में पीड़ितों के साथ रहे। कई बार दलित पीड़ित परिवारों से सीधे मिलने पहुंचे और भाजपा सरकार पर संस्थागत भेदभाव का आरोप लगाया। आत्महत्या करने वाले आईपीएस पूरन कुमार केस को भी इसी क्रम का ताजा उदाहरण माना जा रहा है। राहुल गांधी के समर्थकों का कहना है कि भारत के समाज में जातीय भेदभाव अब भी मौजूद है, इसलिए किसी राष्ट्रीय नेता द्वारा पीड़ित वर्ग के समर्थन में खड़ा होना गलत नहीं। उनका कहना है कि गांधी परिवार हमेशा संविधान और सामाजिक समरसता की बात करता है, और अगर इसके लिए जातीय असमानताओं को उजागर करना पड़े, तो यह समाज सुधार का हिस्सा है, न कि विभाजनकारी राजनीति।
उधर, विरोधियों का कहना है कि गांधी परिवार जातीय मुद्दों को ऐसे समय में उठाता है जब कांग्रेस राजनीतिक रूप से कमजोर पड़ती दिखती है। उनका आरोप है कि राहुल गांधी हर संवेदनशील घटना को जाति और धर्म के फ्रेम में रखकर सरकार पर हमला करते हैं, जिससे दलित समाज के भीतर असुरक्षा की भावना बढ़ती है और समाज में परस्पर अविश्वास गहराता है। विश्लेषकों के अनुसार, राहुल गांधी का राजनीतिक एजेंडा न्याय और समानता के विचार पर केंद्रित है, जो संविधान के अनुरूप है, परंतु उसकी प्रस्तुति भावनात्मक होने के कारण अक्सर विवाद को जन्म देती है। पूरन कुमार प्रकरण ने यह साबित कर दिया कि राहुल अभी भी जनता के साथ भावनात्मक जुड़ाव बनाने की कोशिश में हैं। हालांकि, यह जुड़ाव उन्हें राजनीतिक रूप से दो धाराओं के बीच खड़ा करता है। एक तरफ सामाजिक न्याय का पक्षधर नेता और दूसरी ओर समाज में विभाजन गहराने वाला राजनेता।
लब्बोलुआब यह है कि आईपीएस पूरन कुमार प्रकरण की पृष्ठभूमि में राहुल गांधी का दौरा कांग्रेस के लिए तात्कालिक सहानुभूति ला सकता है, किंतु दीर्घकाल में यह सवाल बना रहेगा कि क्या गांधी परिवार की यह जातीय राजनीति वाकई सामाजिक न्याय का मार्ग प्रशस्त करती है या यह केवल एक पुरानी चुनावी रणनीति का पुनरावर्तन है। भारत का समाज आज भी जाति और धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दों पर गहराई से बंटा हुआ है। ऐसे में प्रत्येक बयान, चाहे वह न्याय की मांग हो या राजनीतिक रणनीति, देश की सामाजिक एकता को प्रभावित करता है। गांधी परिवार की राजनीति इसी विरोधाभास के चौराहे पर खड़ी है। क्या वे बदलाव और न्याय की राजनीति के प्रतीक हैं, या वही नेता जिन्होंने समाज के भीतर मौजूद दरारों को राजनीति के औजार के रूप में इस्तेमाल किया?
संजय सक्सेना
वरिष्ठ पत्रकार
लखनऊ ( उ. प्र.)