🔹आचार्य सन्त कुमार भारद्वाज
JNN: एक सामाजिक अभिशाप | भारत, जहां संस्कृति और परंपराओं का गौरव गाया जाता है, वहां एक काला सच भी पनप रहा है—दहेज प्रथा। यह प्रथा, जो कभी बेटियों को आर्थिक सहारा देने के लिए शुरू हुई थी, आज एक खतरनाक सामाजिक बीमारी बन चुकी है। ग्रेटर नोएडा का निक्की भाटी मर्डर केस इसका ताजा और दिल दहलाने वाला उदाहरण है। 28 वर्षीय निक्की भाटी की कथित तौर पर दहेज के लिए जिंदा जलाकर हत्या कर दी गई, और यह क्रूरता उसके छह साल के बेटे की आंखों के सामने हुई। यह केवल एक घटना नहीं, बल्कि उस गहरी जड़ें जमा चुकी सामाजिक बुराई का प्रतीक है, जो हर दिन औसतन 20 बेटियों की जिंदगी छीन रही है।
NCRB के आंकड़े बयां करते हैं खौफनाक हकीकत
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की 2017 से 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, इस अवधि में 35,493 महिलाएं दहेज से जुड़ी हिंसा का शिकार होकर अपनी जान गंवा चुकी हैं। इसका मतलब है कि हर दिन लगभग 20 महिलाएं इस कुप्रथा की बलि चढ़ रही हैं। साल 2022 में अकेले 6,450 दहेज हत्याएं दर्ज की गईं, जिनमें उत्तर प्रदेश सबसे आगे रहा, जहां 2,138 मामले सामने आए। यह आंकड़ा देश की कुल दहेज हत्याओं का लगभग 30% है। उत्तर प्रदेश के बाद बिहार (1,057 मामले) और मध्य प्रदेश (518 मामले) का स्थान है। पांच राज्य—उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल—मिलकर देश की 70% दहेज हत्याओं के लिए जिम्मेदार हैं। दक्षिण भारत में स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है, जहां कर्नाटक में 165, तेलंगाना में 137 और केरल में केवल 11 मामले दर्ज हुए।
कानून तो हैं, फिर भी क्यों नहीं रुक रहीं हत्याएं?
भारत में दहेज निषेध अधिनियम 1961 से लागू है। भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 304B दहेज हत्या को परिभाषित करती है, जिसमें शादी के सात साल के भीतर दहेज से जुड़ी मृत्यु को गंभीर अपराध माना जाता है। धारा 498A पति या ससुराल वालों द्वारा क्रूरता को अपराध घोषित करती है। इसके अलावा, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 भी मौजूद है। फिर भी, दहेज हत्याएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। इसका कारण है सामाजिक स्वीकार्यता, जहां दहेज को एक ‘परंपरा’ के रूप में देखा जाता है। शादियों में नकद, गहने, गाड़ियां और महंगे उपहारों की मांग को सामान्य माना जाता है, और इसे सोशल मीडिया पर ‘स्टेटस सिंबल’ के रूप में बढ़ावा भी दिया जा रहा है।
निक्की भाटी के मामले में भी यही देखने को मिला। उसके परिवार ने शादी में स्कॉर्पियो कार, रॉयल एनफील्ड मोटरसाइकिल, सोना और नकदी दी थी, फिर भी ससुराल वालों ने कथित तौर पर 36 लाख रुपये और एक लग्जरी कार की मांग की। यह लालच आखिरकार निक्की की जान ले गया।
न्याय की राह में बाधाएं
दहेज हत्याओं के मामलों में दोषसिद्धि की दर बेहद कम है। NCRB के अनुसार, 2022 में 60,577 दहेज हत्या के मामले अदालतों में लंबित थे, जिनमें से केवल 3,689 का निपटारा हुआ और मात्र 33% मामलों में सजा हुई। निक्की भाटी जैसे मामलों में भी सजा की संभावना 2% से कम है। जांच में देरी, कानूनी संसाधनों की कमी, सामाजिक दबाव और पीड़ित परिवारों पर समझौते का दबाव जैसे कारक न्याय की राह में रोड़े अटकाते हैं।
सामाजिक जागरूकता और बदलाव की जरूरत
निक्की भाटी का मामला केवल एक परिवार की त्रासदी नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए एक चेतावनी है। समाजसेवी योगिता भयाना का कहना है कि दहेज को एक सामान्य प्रथा मानने की मानसिकता समाज की जड़ों में बसी है। वह बताती हैं कि हाल ही में एक शादी में फॉर्च्यूनर और मर्सिडीज जैसी लग्जरी कारें दहेज में दी जा रही थीं, जिसे देखकर वह स्तब्ध रह गईं। यह दिखाता है कि दहेज को न केवल स्वीकार किया जा रहा है, बल्कि इसका महिमामंडन भी हो रहा है।
निक्की की बहन कंचन भाटी, जो खुद उसी ससुराल में ब्याही गई है, ने इस मामले को सोशल मीडिया पर उठाकर लोगों का ध्यान खींचा। उनकी बनाई वीडियो, जिसमें निक्की को आग की लपटों में घिरा दिखाया गया, ने समाज को झकझोर दिया। कंचन का कहना है कि निक्की के ससुराल वाले उसे और निक्की को लगातार प्रताड़ित करते थे।
आगे की राह
दहेज प्रथा को खत्म करने के लिए केवल कानून पर्याप्त नहीं हैं। समाज को इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा कि दहेज शादी का अनिवार्य हिस्सा है। इसके लिए जरूरी है:
• जागरूकता अभियान: स्कूलों, कॉलेजों और समुदायों में दहेज के खिलाफ जागरूकता फैलाने की जरूरत है।
• तेज और निष्पक्ष जांच: पुलिस और न्यायिक प्रक्रिया को तेज करना होगा ताकि दोषियों को समय पर सजा मिले।
• सामाजिक बदलाव: दहेज को ‘स्टेटस सिंबल’ के रूप में बढ़ावा देने वाली मानसिकता को बदलने के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार जरूरी हैं।
• महिलाओं का सशक्तिकरण: शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता के जरिए महिलाओं को सशक्त करना होगा, ताकि वे दहेज जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ आवाज उठा सकें।
निक्की भाटी की कहानी एक परिवार की त्रासदी नहीं, बल्कि उस समाज की विफलता की कहानी है, जो अपनी बेटियों को बचाने में नाकाम रहा है। हर आंकड़े के पीछे एक चेहरा, एक कहानी और एक टूटा हुआ परिवार है। यह समय है कि हम सब मिलकर इस कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाएं और सुनिश्चित करें कि कोई और निक्की दहेज की भेंट न चढ़े।
निक्की भाटी का हत्याकांड केवल एक खबर नहीं, बल्कि एक चेतावनी है। जब तक समाज दहेज को अपराध के बजाय परंपरा मानता रहेगा, तब तक बेटियां यूं ही बलि चढ़ती रहेंगी। यह समय है बदलाव का, न केवल कानूनों के अमल का, बल्कि हमारी सोच और संस्कृति में आमूल-चूल परिवर्तन का। क्या हम अपनी बेटियों को एक ऐसा समाज दे पाएंगे, जहां उनकी कीमत नकद, गहनों या गाड़ियों से न मापी जाए, बल्कि उनकी जिंदगी और सम्मान को सर्वोच्च माना जाए? यह सवाल हर भारतीय के सामने है।